बंद आँखों में पिघलती हुइ इक नज़्म के रोग और मिसरों में छुपे दर्द हमें जानते हैं यूँ गले मिलते हैं बिछड़ा हुआ जैसे मिल जाए तेरे कूचे में पले दर्द हमें जानते हैं हम से शाहान-ए-मोहब्बत का पता पूछते हो इश्क़-आबाद के बे-दर्द हमें जानते हैं एक मेला सा लगा होता है यार आख़िर-ए-शब दिल की सरहद पे खड़े दर्द हमें जानते हैं ज़र्द रुत में भी उन्हें हम ने सँभाले रक्खा तिरे हाथों से मिले दर्द हमें जानते हैं हम ने देखे हैं सज़ा काट के जीते हुए दिन इस हवाले से तो ये दर्द हमें जानते हैं