दिल अब उस शहर में जाने को मचलता भी नहीं क्या ज़रूरी है ज़रूरत से अलग हो जाना ऐन-मुमकिन है समझ तुम को न आऊँ इस साल तुम यही करना कि उजलत से अलग हो जाना ये कहीं छीन न ले सब्र की दौलत तुम से दिल धुआँ करती क़यामत से अलग हो जाना वो तुम्हें भूल के पागल भी तो हो सकता है देख कर वक़्त सुहूलत से अलग हो जाना मेरी तक़दीर में बस एक ही दुख उतरा है दिल का उस यार की संगत से अलग हो जाना तेरा ग़म ही तो उड़ाए लिए फिरता है मुझे चाहे कौन ऐसी अज़िय्यत से अलग हो जाना अध-खिले फूल से रखना न कभी रब्त कोई अध-बुझे रंग की हालत से अलग हो जाना हम तो जाँ हार चले हैं प तुम ऐ निकहत-ए-गुल चश्म-ए-क़ातिल की मशिय्यत से अलग हो जाना