बंद होंटों से भी इज़्हार-ए-तमन्ना करते आइना बन के तिरे हुस्न को देखा करते अपना साया भी यहाँ ग़ैर नज़र आता है अजनबी शहर में हम किस पे भरोसा करते उस की महफ़िल में तो इक भीड़ थी दीवानों की पहले दिल अहल-ए-नज़र अहल-ए-वफ़ा क्या करते इश्क़ हर हाल में पाबंद-ए-वफ़ा होता है हम तो बदनाम थे क्यूँ आप को रुस्वा करते इतनी गुज़री है जहाँ और गुज़र जाएगी ज़िंदगी के लिए इतना नहीं सोचा करते जब तलक साँस चले बस यूँ ही चलते रहिए चल के दो-चार क़दम यूँ नहीं ठहरा करते ऐ ख़ुदा हम तिरी वहदत पे यक़ीं रखते हैं क्यूँ तिरे दर के सिवा हम कहीं सज्दा करते