बंद कर बैठे हो घर रद्द-ए-बला की ख़ातिर एक खिड़की तो खुली रखते हवा की ख़ातिर भेंट चढ़ते रहे हर दौर में इंसाँ कितने फ़र्द-ए-वाहिद की फ़क़त झूटी अना की ख़ातिर हर ज़बरदस्त का हर ज़ुल्म सहा है मैं ने ज़िंदगी महज़ तिरी हिर्स-ए-बक़ा की ख़ातिर डर जहन्नम का न जन्नत की हवस है मुझ को सर झुकाया है फ़क़त तेरी रज़ा की ख़ातिर मैं सियह-बख़्त जिसे मार के अपनों ने 'जलील' ग़ैर को दोश दिया ख़ून-बहा की ख़ातिर