फ़ैज़ था उस के तसव्वुर का जो चश्म-ए-तर तक क़ाफ़िले रंग के खिंच आए हमारे घर तक देखते अहल-ए-जहाँ ज़ौक़-ए-वफ़ा के जौहर उस की तलवार ही पहुँची न हमारे सर तक तेरे कूचे की फ़ज़ा और ही कुछ है यूँ तो नज़रें हो आई हैं दुनिया के हर इक मंज़र तक ऐ ख़िरद तुझ से किसी दिल को जगाया न गया इश्क़ के हाथ में तो बोल उठे पत्थर तक हम तो मौसम के इशारों से बहक जाते हैं मय-कशी कुछ नहीं महदूद ख़ुम-ओ-साग़र तक मौत आ जाए बस इक सजदा-ए-पुर-शौक़ के बा'द काश हो जाए रसाई कभी तेरे दर तक क्या हो अंजाम तरक़्क़ी का ख़ुदा जाने 'जलील' शोरिश-ए-अक़्ल से लर्ज़ां हैं मह-ओ-अख़्तर तक