बाँहों के किसी हार की मुहताज नहीं है चाहत है ये इक़रार की मुहताज नहीं है दीवार उठाते हुए ये सोच तो लेते ख़ुशबू किसी दीवार की मोहताज नहीं है इक रोज़ मैं आई थी उसी आँख की ज़द में वो आँख जो तलवार की मुहताज नहीं है तुम मेरी मोहब्बत को पढ़ो आँख में मेरी ये प्यार के इज़हार की मोहताज नहीं है ख़ालिस हो तो हो जाए किसी से ये मोहब्बत इस अह्द के मेआ'र की मोहताज नहीं है महबूब की सूरत का अगर नक़्श हो दिल पर फिर आँख तो दीदार की मोहताज नहीं है एहसान नहीं चाहिए ये सुन लो 'रिशा' भी माँगे हुए इस प्यार की मोहताज नहीं है