तुम्हारी फूँक से क्या फ़र्क़ पड़ने वाला है ये शम्अ वो है जिसे आँधियों ने पाला है ग़म-ए-हयात ने उस पर भी बोझ डाला है कि जिस ने होश भी अपना नहीं सँभाला है उड़ा रहा है वही मेरी मुफ़लिसी का मज़ाक़ कि जिस ने सिक्कों में ईमान बेच डाला है हमारे सब्र को तुम बुज़दिली का नाम न दो इसी ख़मोशी में पोशीदा इक ज्वाला है तुम्हें ग़ुरूर है ताक़त पे ज़र पे कसरत पे हमें ये नाज़ कि हमराह हक़-तआ'ला है अलावा इस के कोई और रास्ता ही नहीं बहुत समझ के ही शो'लों में हाथ डाला है हज़ार साज़िश-ए-पैहम के बावजूद 'एजाज़' जहाँ में हक़्क़-ओ-सदाक़त का बोल-बाला है