बंजारा बन गया कोई दर ढूँढता रहा मैं तेरी काएनात में घर ढूँढता रहा इक रोज़ ख़ौफ़ दिल से निकाला कुछ इस तरह सर को पटख़ता रह गया डर ढूँढता रहा जब बादशह की जान भी ख़तरे में पड़ गई मक़्तल के वास्ते कोई सर ढूँढता रहा अटकी हुई फ़लक पे थी मेरी भी इक दु'आ रिज़्क़-ए-हराम खा के असर ढूँढता रहा थे दाएरे के गिर्द रवाँ रोज़-ओ-शब मिरे उलझी रही लकीर सफ़र ढूँढता रहा मैं ज़िंदगी से मौत की जानिब था गामज़न कितना मैं बे-ख़बर था ख़बर ढूँढता रहा चकमा दिया था मैं ने ही दरिया को जा-ब-जा बच कर निकल गया मैं भँवर ढूँढता रहा 'माजिद' न एहतिसाब किया अपनी ज़ात का महव-ए-सफ़र रहा मैं बशर ढूँढता रहा