बनती है दिन में दुनिया अक्सर निगार-ख़ाना फिरता है जब नज़र में गुज़रा हुआ ज़माना फ़र्द-ए-अमल न दिखला क्यों मुझ को याद आए गुज़रा हुआ ज़माना भूला हुआ फ़साना सर को क़फ़स पे रक्खे सय्याद कह रहा है बुलबुल की जान निकला उजड़ा सा आशियाना उन पर पड़ी तो ऐसे तड़पे कि फिर न सँभले कहते थे जो यही है दुनिया का कार-ख़ाना अब बाग़बाँ भी अक्सर हसरत से देखता है है यादगार-ए-बुलबुल सुनसान आशियाना जल्लाद तेरे सदक़े क़िस्मत से मिल गया तू मुद्दत से ढूँढती थी मेरी अजल बहाना इक ला-जवाब हस्ती सज्दों में मिट चुकी थी फिर क़िबला क्यों न बनता 'बेख़ुद' का आस्ताना पुतली जो फिर चली थी 'बेख़ुद' तो बन चला था छुटता हुआ ज़माना मिटता हुआ ज़माना