बार बार एक ही नज़्ज़ारा न दिखलाया कर बात दिलकश भी अगर हो तो न दोहराया कर लोग गिर जाते हैं मिट्टी के घरोंदों की तरह इस तरह बारिश-ए-दीदार न बरसाया कर पेड़ का साया नहीं टूटा हुआ पत्ता हूँ मुझ को जज़्बात के दरिया में न ठहराया कर टूट जाए न किसी रोज़ तिरा शीश-महल यूँ सर-ए-राह न दीवानों को समझाया कर मेरे एहसास को इक फूल बहुत है 'ख़ावर' मेरे एहसास पे यूँ संग न बरसाया कर