बार-बार जीते हैं बार-बार मरते हैं यूँ वफ़ा की दुनिया में अपने दिन गुज़रते हैं आज गेसू-ए-हस्ती ‘अस्र-ए-नौ के शाने से उतने ही उलझते हैं जिस क़दर सँवरते हैं हर क़दम पे मिलते हैं तेग़-ओ-दार के साए मुज़्दा-ए-मोहब्बत हम फिर भी ‘आम करते हैं किस को होश रहता है मय-कदे में हस्ती के उस दम आँख खुलती है जब नशे उतरते हैं कब नज़र में उन की है फ़र्क़-ए-काफ़िर-ओ-दींदार जो तिरी मोहब्बत का दम जहाँ में भरते हैं अब्र-ए-रहमत उठता है झूम झूम कर पैहम जिस मक़ाम से भी हम अहल-ए-ग़म गुज़रते हैं ख़ानक़ाह के दिन भी हैं दो-चार ज़ुल्मत से मय-कदे में रातों को आफ़्ताब उभरते हैं शैख़ और बरहमन के हथकँडे अरे तौबा आदमी को बेगाना आदमी से करते हैं शिकवा-ए-बहाराँ क्यों कर रहे हो 'रेहानी' ख़ून-ए-दिल खपाने से गुल्सिताँ निखरते हैं