नादिर अश्या की जगह छाँट के लाए पत्थर हम ने किस शौक़ से कमरे में सजाए पत्थर हर्फ़-ए-हक़ हर्फ़-ए-ग़लत करने को आए पत्थर मैं ने सच बोल के हर दौर में खाए पत्थर हम ने बे-फ़ैज़ चटानों में खिलाए गुलज़ार हम ने ज़रख़ेज़ ज़मीनों से उगाए पत्थर रोज़ उभरते रहे दीवार मुक़ाबिल बन कर अपनी राहों से बहुत हम ने हटाए पत्थर क्या ख़बर कौन से आलम में उठी थीं नज़रें मैं ने देखा तो सितारे नज़र आए पत्थर फूल बरसाए थे हर एक पे हम ने 'कैफ़ी' लौट कर हम पे हर इक सम्त से आए पत्थर