बराए-पास-ए-अदब ख़ाक बैठ सकती है तू बैठी क्यों नहीं जब ख़ाक बैठ सकती है अभी तो क़ाफ़िला सहरा में चल रहा है मियाँ ये बैठ जाएगा तब ख़ाक बैठ सकती है ख़ला के पार गया है कोई सवार कहीं उड़ी है रश्क से कब ख़ाक बैठ सकती है वो जिस के सर पे चढ़ाया था ख़ाक-ए-इम्काँ को उसी हवा के सबब ख़ाक बैठ सकती है ‘अजम से आई हुई एक ख़्वाहिश-ए-ख़ाकी ब-पेश-ए-शाह-ए-'अरब ख़ाक बैठ सकती है मिरे ही दम से उड़ी फिर रही थी सहरा में मैं उठ रहा हूँ सो अब ख़ाक बैठ सकती है