बराए-नाम कोई राब्ता हुआ तो सही कि एक शख़्स मिरे हाल पर हँसा तो सही ज़रा सी देर को सदियों की ख़ामुशी तो गई नवाह-ए-जाँ से कोई शोर सा उठा तो सही दिल-ए-शिकस्ता को मौहूम सी उम्मीद तो थी मुझे नसीब नहीं था मगर वो था तो सही कभी तमाम तो कर बद-गुमानियों का सफ़र किसी बहाने किसी रोज़ आज़मा तो सही ये क्या कि हर्फ़-ओ-सदा का तबादला भी नहीं कहाँ है कैसा है ऐ दोस्त कुछ बता तो सही हर एक दिल को मोहब्बत पसंद होना है 'अक़ील' अब न सही मैं नहीं रहा तो सही