जो ख़ूँ रोती है आँखें सारा मंज़र चीख़ उठता है बिछड़ कर मुझ से कोई मेरे अंदर चीख़ उठता है क्या उस का दर्द है क्या ग़म है कोई उस से पूछे तो एक ऐसा शख़्स है रातों को उठ कर चीख़ उठता है उसे है ख़ूब दर्द-ए-दिल की गहराई का अंदाज़ा ये आँसू देख कर मेरा समुंदर चीख़ उठता है भरी दुनिया में तन्हा बे-सहारा देख कर ख़ुद को कोई मासूम रोता है तो पत्थर चीख़ उठता है तेरे होने से दीवाली है मेरे घर में हर इक दिन हर इक पल तेरे जाने का जो ये डर चीख़ उठता है किसी पल भी नहीं रहता तिरी ख़ुशबू से ये ख़ाली नहीं होता है तू घर में तो ये घर चीख़ उठता है तू अपने साथ जब से ले गया तस्वीर भी अपनी दर-ओ-दीवार रोते हैं ये बिस्तर चीख़ उठता है जुदा हो कर भी इंशा की मोहब्बत उस के दिल में है किसी पर ज़ुल्म होता है क़लंदर चीख़ उठता है तेरी यादों की ये बाद-ए-सबा जब ख़ून रोती है मेरा वहम-ओ-गुमाँ और दिल का खंडर चीख़ उठता है जहाँ होते हो तुम देखो गुलाबी शाम होती है तुम्हारा ज़िक्र होते ही नवम्बर चीख़ उठता है किसी से भी कोई शिकवा नहीं 'अर्पित' मुझे फिर भी मेरे दिल का ये सन्नाटा भी अक्सर चीख़ उठता है