बरगश्ता-तालई का तमाशा दिखाऊँ मैं घर को लगे जो आग तो पानी बुझाऊँ मैं जिंस-ए-गिराँ-बहा का ख़रीदार कौन है यकता नहीं इलाही जो चोरी ही जाऊँ मैं लाला-रुख़ों के हुस्न का भूका हूँ इस क़दर दिल हो न सैर लाख अगर दाग़ खाऊँ मैं आँखें मिरी करे जो मुनव्वर जमाल-ए-यार घी के चराग़ तूर के ऊपर जलाऊँ मैं मुर्दे की तरह सोते हैं कैसे मिरे नसीब ठोकर से पा-ए-यार के उन को जगाऊँ मैं बोसा मिले कमाँ का जो अबरू-ए-यार की मेहराब-ए-बैत-ए-काबा में चिल्ला चढ़ाऊँ मैं जी चाहता है शौक़-ए-शहादत में क़ब्ल-ए-मर्ग बनवा के क़ब्र-ए-लाला को उस पर लगाऊँ मैं घर में जो मुझ फ़क़ीर के वो शाह-ए-हुस्न आए मिज़्गाँ के बोरिए जो खड़े हैं बिछाऊँ मैं काँटा सुखा के हिज्र ने हर-चंद कर दिया वो गुल-बदन मिले तो न फूला समाऊँ मैं तुम तो ग़रीब-ख़ाने में आए न एक रोज़ फ़रमाइए तो शब को किसी वक़्त आऊँ मैं बारीक-बीं हूँ शायर-ए-नाज़ुक-ख़याल हूँ मज़मूँ जहाँ कमर का मिले बाँध लाऊँ मैं 'आतिश' ग़ुलाम-ए-साक़ी-ए-कौसर हूँ चाहिए फ़िरदौस का खुला हुआ दरवाज़ा पाऊँ मैं