बर्क़ को उस पर अबस गिरने की हैं तय्यारियाँ बर्ग-ए-गुल ही आशियाँ को अपने है चिंगारियाँ अहद-ए-तिफ़्ली में भी था मैं बस-कि सौदाई-मिज़ाज बेड़ियाँ मिन्नत की भी पहनीं तो मैं ने भारीयाँ मौत के आते ही हम को ख़ुद-बख़ुद नींद आ गई क्या उसी की याद में करते थे शब-बेदारियाँ ऐ ख़त उस के गोरे गालों पर ये तू ने क्या किया चाँदनी रातें यकायक हो गईं अँधयारीयाँ ख़ंदा-ए-गुल से सदा-ए-नाला आती है मुझे ख़ून-ए-बुलबुल से मगर सींची गई हैं क्यारियाँ ख़ाक का पुतला भी आहन से है सख़्ती में फ़ुज़ूँ जिस्म पर इंसाँ के तलवारें हुई हैं आरियाँ ख़ौफ़-ए-ख़ालिक़ है वगर्ना मोहतसिब क्या माल है ख़ाना-ए-क़ाज़ी में जा कर कीजिए मय-ख़्वारियाँ कुछ हमीं ख़ाली नहीं करते हैं ये दैर-ए-ख़राब फिर गए हैं यार यूँही अपनी अपनी बारियाँ हुक्म कर 'आतिश' कि बाज़ार-ए-मोहब्बत बंद हो अब करें टटपूजिए गर्म अपनी दूकाँ-दारियाँ