बर्ग-ए-सदा को लब से उड़े देर हो गई हम को भी अब तो ख़ाक हुए देर हो गई अब साहिलों पे किस को सदा दे रहे हो तुम लम्हों के बादबान खुले देर हो गई ऐ हुस्न-ए-ख़ुद-परस्त ज़रा सोच तो सही मेहर-ओ-वफ़ा से तुझ को मिले देर हो गई तेरा विसाल ख़ैर अब इक वाक़िआ' हुआ अब अपने-आप से भी मिले देर हो गई सदियों की रेत ढाँप कर आसूदा हो गए सर को हमारे तन से कटे देर हो गई सरसर हो या सबा हो कि हों तेज़ आँधियाँ हम को फ़सील-ए-शब पे जले देर हो गई तेरी गली के मोड़ पे पहुँचे थे जल्द हम पर तेरे घर को आते हुए देर हो गई इक दौर था 'शनास' सदा थी मिरी बुलंद और अब तो मेरे होंट सिले देर हो गई