बारहा बस मुझे यूँ लगता है है कोई जो मुझे ही तकता है ख़्वाब रातों में ख़्वाब में आ कर ख़्वाब की ही तरह बिखरता है रौशनाई निगल गया था जो साया वो आँखों में खटकता है दिन के सन्नाटे में क़रीब आ कर रम्ज़ पेशानी पर टहलता है ऐ ज़मीं प्यासी ही रहेगी तू आसमाँ से धुआँ बरसता है कोई बू ख़ाक कर गई शायद देख फूलों को जी मचलता है ग़म-तलब कब तलक रहे कोई अब लहू आँखों से टपकता है