बारिश हुई तो शहर के तालाब भर गए कुछ लोग डूबते हुए धुल कर निखर गए सूरज चमक उठा तो निगाहें भटक गईं आई जो सुब्ह-ए-नौ तो बसारत से डर गए दरिया बिफर गए तो समुंदर से जा मिले डूबे जो उन के साथ किनारे किधर गए दुल्हन की सुर्ख़ माँग से अफ़्शाँ जो गिर गई लम्हों की शोख़ झील में तारे बिखर गए फिर दश्त-ए-इंतिज़ार में खिलने लगे कँवल पलकों से झाँकते हुए लम्हे सँवर गए बुझते हुए चराग़ हथेली पे जल गए झोंके तुम्हारी याद के दिल में उतर गए सोचा तुम्हें तो दर्द की सदियाँ पिघल गईं देखा तुम्हें तो वक़्त के दरिया ठहर गए तुम तो भरी बहार में खिलते रहे मगर हम ज़ख़्म काएनात थे काँटों से भर गए 'इशरत' शब-ए-नशात के जुगनू लिए हुए हम जश्न-ए-ज़र-निगाह में परियों के घर गए