बिछड़ के हम से मिलना चाहती है मोहब्बत और क्या क्या चाहती है किसी सहरा-ए-वहशत में उतर कर मोहब्बत ख़ुद सिमटना चाहती है जिसे सूरज ने झुलसाया है बरसों वही कोंपल पनपना चाहती है कोई मौज-ए-बला है और तन्हा समुंदर को निगलना चाहती है झुलसते सूरजों की भट्टियों में हर इक साअ'त पिघलना चाहती है कोई ज़ख़्मी परिंदा मर रहा है बसारत मुँह छुपाना चाहती है समुंदर शब उतरने को है 'इशरत' ये बस्ती डूब जाना चाहती है