बारकल्लाह मैं तिरे हुस्न की क्या बात कहूँ सज कहूँ धज कहूँ छब तख़्ती कहूँ गात कहूँ रुख़ ओ ज़ुल्फ़ उस के शब-ए-तार में देखे बाहम हूँ अचंभे में इसे दिन कहूँ या रात कहूँ की क़यामत तिरे क़ामत ने तो गुलशन ऊपर पंखुड़ी एक तरफ़ फूल कहूँ पात कहूँ ताक़-ए-अबरू के नज़ारे के थे ख़्वाहाँ सो मिला और क्या हाजत अब ऐ क़िबला-ए-हाजात कहूँ देखने को अभी दिल तड़पा कि तुम आ पहुँचे कशिश-ए-दिल कि तुम्हारी ये करामात कहूँ ऐन हिज्राँ में बहार-ए-गुल-ओ-बाराँ आई गिर्या आशिक़ का कहूँ या उसे बरसात कहूँ 'अज़फ़री' ने हैं तिरे इश्क़ में झेले प्यारे क्या क्या आफ़ात बलिय्यात कि सदमात कहूँ