बर-सर-ए-रोज़गार थे हम तो 'जौन' यारों के यार थे हम तो चल दिए दोस्त तो ये ध्यान आया सिर्फ़ इक रहगुज़ार थे हम तो अब ग़ुलामों के भी ग़ुलाम हुए साहब-ए-इक़्तिदार थे हम तो खुल के रोए हैं तो यक़ीन आया वाक़ई जान-दार थे हम तो जब गिरे टूट कर तो ये देखा चार सू बे-शुमार थे हम तो हमें ठुकरा दिया गया है 'ज़की' रुख़-ए-परवरदिगार थे हम तो