बस तिरा इस्म मुनाजात में रक्खा हुआ है गर्दिश-ए-वक़्त को औक़ात में रक्खा हुआ है ये तिरे अद्ल-ओ-मुसावात में रक्खा हुआ है तू ने तो अज्र भी दर्जात में रक्खा हुआ है अब मुझे जा के हर इक दर पे सदा देनी है जब मिरा रिज़्क़ ही ख़ैरात में रक्खा हुआ है अपनी हर बात पे होता है विलायत का गुमाँ इश्क़ ने कैसे तिलिस्मात में रक्खा हुआ है तू ने जो आख़िरी मक्तूब मुझे भेजा था मैं ने इक उम्र से बरसात में रक्खा हुआ है रौनक़-ए-शहर कभी रास नहीं आई 'ज़की' दिल को बहला के मज़ाफ़ात में रक्खा हुआ है