बस अब तर्क-ए-तअल्लुक़ के बहुत पहलू निकलते हैं सो अब ये तय हुआ है शहर से साधू निकलते हैं हम आ निकले अजब से एक सहरा-ए-मोहब्बत में शिकारी के तआक़ुब में यहाँ आहू निकलते हैं ये इक मंज़र बहुत है उम्र भर हैरान रहने को कि मिट्टी के मसामों से भी रंग-ओ-बू निकलते हैं ज़मीर-ए-संग तुझ को तेरा पैकर-साज़ आ पहुँचा अभी आँखें उभरती हैं अभी आँसू निकलते हैं कोई नादिर ख़ज़ीना है मिरे दस्त-ए-तसर्रुफ़ में झपटने को दर-ओ-दीवार से बाज़ू निकलते हैं मैं अपने दुश्मनों का किस क़दर मम्नून हूँ 'अनवर' कि उन के शर से क्या क्या ख़ैर के पहलू निकलते हैं