बस एक ही कैफ़िय्यत-ए-दिल सुब्ह-ओ-मसा है हर लम्हा मिरी उम्र का ज़ंजीर-ब-पा है मैं शहर को कहता हों बयाबाँ कि यहाँ भी साया तिरी दीवार का कब सर पे पड़ा है है वक़्त कि कहता है रुकुंगा न मैं इक पल तू है कि अभी बात मिरी तोल रहा है मैं बज़्म से ख़ाकिस्तर-ए-दिल ले के चला हूँ और सामने तन्हाई के सहरा की हवा है आवाज़ का तेशा है न ख़ामोश तकल्लुम ताला जो ज़बाँ पर था वो अब दिल पे पड़ा है मैं साथ लिए फिरता हूँ सामान-ए-हलाकत रग रग में मिरी ज़हर-ए-वफ़ा दौड़ रहा है क्या क्या हैं तमन्नाएँ दिल-ए-ख़ाक-बसर में ये क़ाफ़िला वीराने में क्यूँ ठहरा हुआ है