दर्द को हम ज़िंदगी का कैफ़-ओ-कम कहते रहे ख़ामुशी के साज़ पर रूदाद-ए-ग़म कहते रहे गोश-बर-आवाज़ पूरी बज़्म में कोई न था दास्तान-ए-आरज़ू कहने को हम कहते रहे इंतिहा-ए-यास में चलते रहे बे-मुद्दआ देखने वाले हमें साबित-क़दम कहते रहे दिल फ़रेब-ए-ज़िंदगी में बे-तरह उलझा रहा इश्क़ को आज़ाद पत्थर को सनम कहते रहे कम-सवादों को मसीहा ना-ख़ुदाओं को ख़ुदा बूद को नाबूद हस्ती को अदम कहते रहे अपने ख़ूँ से दास्तान-ए-ग़म रक़म करते रहे लौह-ए-दिल को नोक-ए-ख़ंजर को क़लम कहते रहे आरज़ू के कितने बुत-ख़ाने थे इस दिल में निहाँ 'अर्श' जिस दिल को सभी ताक़-ए-हरम कहते रहे