बस एक जिस्म एक ही क़द में पड़ा रहूँ बेहद हूँ मैं तो क्यूँ किसी हद में पड़ा रहूँ सुब्ह-ए-अज़ल है कब से मिरे इंतिज़ार में जी चाहता है ताक़-ए-अबद में पड़ा रहूँ इक रोज़ तंग आ के मुझे सोचना पड़ा कब तक मैं अपनी सोहबत-ए-बद में पड़ा रहूँ आगे निकलता जाता हूँ मैं अपने-आप से अब दर-गुज़र करूँ कि हसद में पड़ा रहूँ बे-सूद हो गया हूँ तो हासिल कहाँ गया ऐ असल ज़र मैं कौन सी मद में पड़ा रहूँ