बस इक शुआ-ए-नूर से साया सिमट गया वो पास आ रहा था कि मैं दूर हट गया फिर दरमियान-ए-अक़्ल-ओ-जुनूँ जंग छिड़ गई फिर मजमा-ए-ख़वास गिरोहों में बट गया क्या अब भी तेरी ख़ातिर-ए-नाज़ुक पे बार हूँ पत्थर नहीं कि मैं तिरे रस्ते से हट गया या इतना सख़्त-जान कि तलवार बे-असर या इतना नर्म-दिल कि रग-ए-गुल से कट गया वो लम्हा-ए-शुऊर जिसे जाँ-कनी कहें चेहरे से ज़िंदगी की नक़ाबें उलट गया अब कौन जाए कू-ए-मलामत से लौट कर क़दमों से आ के अपना ही साया लिपट गया आख़िर 'शकेब' ख़ू-ए-सितम उस ने छोड़ दी ज़ौक़-ए-सफ़र को देख के सहरा सिमट गया