बस इसी फ़िक्र में गुज़री सहर-ओ-शाम तमाम हो न जाए दिल-ए-ना-काम तिरा काम तमाम लब पे आते ही बदल जाते हैं फिर रंग-ओ-रस अप्सरा हूर कली फूल तिरे नाम तमाम ज़ख़्म बेताब हैं फिर आज हरे होने को मेरे पैमाने में है गर्दिश-ए-अय्याम तमाम मुझ को डर है कि कहीं मग़रिबी बुत-ख़ाने में झुक न जाए निगह-ए-आलम-ए-इस्लाम तमाम तू ने किस किस को ये दीवाना बना रक्खा है तेरे कूचे में दिखे शहर के बदनाम तमाम इक तिरे नाम को पलकों पे बिठाने के सबब मेरी नज़रों से गिरे हैं तिरे हमनाम तमाम देख तूफ़ान-ए-गुल-अफ़्शाँ की फ़ज़ा देख 'ज़ुहैब' जिस की आमद से खुले हैं लब-ए-गुलफ़ाम तमाम