बस इसी हद तक जहान-ए-रंग-ओ-बू अच्छा लगा इक जवान-ए-सर्व-क़द इक ख़ूब-रू अच्छा लगा ज़ाहिदों की रूह में जब झाँक कर देखा तो फिर ख़िर्क़ा-ओ-सज्जादा से अपना सुबू अच्छा लगा गुफ़्तुगू में सर्द-मेहरी आँख में लुत्फ़-ओ-करम उस का ये अंदाज़ मेरे रू-ब-रू अच्छा लगा जब नज़र डाली किताब-ए-ज़िंदगी पर ग़ौर से इस में बस इक लम्हा-ए-तेग़-ओ-गुलू अच्छा लगा अपनी फ़ितरत में है दरवेशी सो हम को मय-कशो साग़र-ए-जमशेद से अपना कदू अच्छा लगा क्या करे अपनी तबीअत की कोई उफ़्ताद को दोस्तो वो दुश्मन-ए-जाँ वो अदू अच्छा लगा जाँ-निसारों की कमी कोई न थी 'जाबिर' यहाँ तेग़-ए-क़ातिल को मगर मेरा लहू अच्छा लगा