बस इतना जानती हूँ ज़िंदगी को कहाँ जीने दिया उस ने किसी को महक उठता है कोई ज़ख़्म फिर से चटकते देखती हूँ जब कली को उसे मैं चाँद कैसे कह सकूँगी तरसती हूँ मैं जिस की चाँदनी को तअ'य्युन मत करो तुम ज़ाइक़ों का मुझे चखने दो अपनी ज़िंदगी को नहीं 'पिंहाँ' ये शोहरत का वसीला इबादत जानती हूँ शाइ'री को