बस कि अब ज़ुल्फ़ का सौदा भी मिरे सर में नहीं क्या करूँ माँग के उस को जो मुक़द्दर में नहीं वो भी मंज़र था कि ख़ुद मुझ में था इक इक मंज़र ये भी मंज़र है कि अब मैं किसी मंज़र में नहीं अब जो हम ख़ुद को समेटें तो समेटें कितना सर भी है अपना खुला पाँव भी चादर में नहीं ऐ मिरे शौक़-ए-शहादत तिरा हाफ़िज़ है ख़ुदा सख़्त जाँ मैं भी हूँ और धार भी ख़ंजर में नहीं मिलने की आस में काँटों पे भी चल कर ख़ुश था और अब चैन मुझे फूलों के बिस्तर में नहीं अब मिरी प्यास के बुझने का नहीं कोई सवाल अब मिरे नाम की सहबा किसी साग़र में नहीं बात ये है कि नज़र ताब-ए-नज़र खो बैठी ये नहीं है कि कशिश अब किसी पैकर में नहीं मैं तो सब का हूँ रिफ़ाक़त पे मिरी सब को है नाज़ कोई मेरा ही मगर मेरे भरे घर में नहीं पुर-तपाक आज भी मिलते हैं न जाने कितने लेकिन इख़्लास 'वक़ार' इन में से अक्सर में नहीं