बसाए जाते हैं अहल-ए-जुनूँ से वीराने रुमूज़-ए-मम्लिकत-ए-हुस्न कोई क्या जाने ये किस की बज़्म है आरास्ता ख़ुदा जाने नहीं है शम्अ' तो क्यों जल रहे हैं परवाने है बंदा होने के इज़हार पर बशर मजबूर प-ए-सुजूद बनें मस्जिदें कि बुत-ख़ाने न क़ैस दश्त में है और न कोह में फ़रहाद पर उन के नाम से गूँज उठते हैं ये वीराने फ़ुज़ूँ हैं नग़्मा-ए-बुलबुल से क़हक़हे गुल के कि इंतिज़ाम-ए-चमन अब करेंगे दीवाने दयार-ए-इश्क़ में बरपा है इंक़िलाब-ए-अज़ीम ये दौर वो है कि अपने हुए हैं बेगाने छुपा लिया रुख़-ए-अनवर हिनाई हाथों से हमारे दिल पे जो गुज़री तिरी बला जाने सितम हज़ार हों ज़ालिम मगर दिलों को न तोड़ तिरे ख़याल से आबाद हैं ये काशाने वो हाल-ए-ग़म मिरा ख़ुद मुझ से सुन के कहते हैं कि सुन चुके हैं हम ऐसे हज़ार अफ़्साने है बादा-नोशी से मस्तों को बाद-ए-मर्ग भी रब्त कि उन की ख़ाक से याँ बन रहे हैं पैमाने सनम से हाल-ए-दिल-ए-ज़ार कह तो दूँ 'आग़ा' मगर मैं जाऊँ कहाँ वो अगर बुरा माने