बशर के फ़ैज़-ए-सोहबत से लियाक़त आ ही जाती है परी-ज़ादों को आख़िर आदमियत आ ही जाती है जवानी से दिया वो होते हैं ग़ाफ़िल ज़ईफ़ी में नसीम-ए-सुब्ह चलती है तो ग़फ़लत आ ही जाती है किलीद-ए-क़ुफ़्ल मुश्किल होती है दाद-ओ-दहिश आख़िर सख़ी के एक दिन आड़े सख़ावत आ ही जाती है रक़ीब उस शोख़ से जब गर्मियाँ करते हैं महफ़िल में नहीं क़ाबू में दिल रहता हरारत आ ही जाती है हमें भी याद कर लेते हैं वो भूले से सोहबत में कभी हम बे-नसीबों की भी नौबत आ ही जाती है तबीअ'त को न क्यूँकर ग़ैर के मज़मून से नफ़रत हो कि झूटी चीज़ से अक्सर कराहत आ ही जाती है बजा कहते हैं जो कहते हैं ये ख़िदमत से अज़्मत है कि काम इंसाँ के इक दिन रियाज़त आ ही जाती है अजब सर-गर्म-ए-कोशिश हो मुक़द्दर में जो होती है तो हाथ इंसाँ के इक रोज़ दौलत आ ही जाती है तअस्सुफ़ करते हैं वो देख कर मेरा दिल-ए-वीराँ ख़राबे पर गुज़रते हैं तो ग़ैरत आ ही जाती है दबाया जब रक़ीबों को तो बोले यार क्या कहना जो अर्बाब-ए-हया हैं उन को ग़ैरत आ ही जाती है हसीनों को ही ज़ेबा हुस्न-ए-सूरत पर ग़ुरूर अपने हर इक अर्बाब-ए-दौलत को रऊनत आ ही जाती है अजब शय है ख़ुशी भी सुन के वस्ल-ए-यार का मुज़्दा मरीज़-ए-हिज्र के चेहरे पे वहशत आ ही जाती है छुपाने से नहीं छुपता है हुस्न-ए-दिल-कश-ए-आलम कहीं हो देखने में अच्छी सूरत आ ही जाती है सिखा देता है इक़बाल आदमी को नेक-ओ-बद आख़िर ये दौलत है वो शय शान-ए-रियासत आ ही जाती है तवज्जोह मुनइमों की नफ़अ' से ख़ाली नहीं होती हवा-ए-गोशा-ए-दामान-ए-दौलत आ ही जाती है सितम-दीदा जो हैं वो ज़िक्र-ए-आफ़त से भी डरते हैं 'क़लक़' नाम-ए-शब-ए-फ़ुर्क़त से दहशत आ ही जाती है