बशर की ज़ात को ग़म से कहाँ मफ़र है मियाँ हज़ार कहिए कोई ग़म नहीं मगर है मियाँ सफ़र में ज़ाद-ए-सफ़र ही तो काम आता है सफ़र को सहल न जानो सफ़र सफ़र है मियाँ मलाल क्या करें दस्तार के न होने का वबाल-ए-दोश यहाँ तो ख़ुद अपना सर है मियाँ ब-आफ़ीयत गुज़र आए थे हर तलातुम से मगर किनारे पे अब डूबने का डर है मियाँ ये ज़िंदगी जो मसाइल से पर है आख़िर तक उसे बसर भी तो करना बड़ा हुनर है मियाँ जो पोंछे भी कोई आँसू तो पोंछे किस किस के हर एक आँख यहाँ आँसुओं से तर है मियाँ ज़माना हो गया बाज़ी-ए-दिल तो हारे हुए रही हयात सो अब वो भी दाव पर है मियाँ है उस का तालिब-ए-दीद आइना भी मैं ही नहीं वो पुर-कशिश है बहुत जाज़िब-नज़र है मियाँ ख़ुशी तो हस्ती-ए-ना-मोतबर न देगी 'वक़ार' जो रिश्ता ग़म से है वो फिर भी मो'तबर है मियाँ