बस्ती में ज़िंदगी के निशाँ तक नहीं रहे ऐसी हवा चली कि मकाँ तक नहीं रहे सैलाब साथ ले गया साहिल को इस लिए तिनकों से मिरा रब्त वहाँ तक नहीं रहे सूरज हँसा तो रात के साए तमाम-तर यूँ मिट गए कि उन के निशाँ तक नहीं रहे अपना शुऊर-ओ-फ़िक्र है अपनी उधेड़-बुन हम लोग अब किसी पे गराँ तक नहीं रहे की जिन के इज़्ज़-ओ-शान की तारीफ़ उम्र भर वो चाहते हैं मेरी ज़बाँ तक नहीं रहे बच्चे भी माँ की बात से अब मुत्तफ़िक़ नहीं चूल्हा जले तो घर में धुआँ तक नहीं रहे उस ने कलाम ऐसे हुनर से किया 'असर' लफ़्ज़ों के तीर सिर्फ़ ज़बाँ तक नहीं रहे