बस्तियाँ हो गईं बेनाम-ओ-निशाँ रातों-रात ऐसे तूफ़ान भी आए हैं यहाँ रातों-रात जी में आता है कि ता'बीर तुझी से पूछें हो गया ख़्वाब तिरा जिस्म-ए-जवाँ रातों-रात शाम हंगामा था ख़ुशियाँ थीं हसीं चेहरे थे खो गई महफ़िल-ए-अहबाब कहाँ रातों-रात हुस्न जलता रहा शम्ओं' की तपाँ ख़ल्वत में हो गई मशअ'ल-ए-महताब धुआँ रातों-रात इक जहाँगीर ख़मोशी की रजज़-ख़्वानी है हो गया क्या ये मिरे घर का समाँ रातों-रात कौन इन कलियों की क़िस्मत पे न रोए 'ख़ातिर' जिन को कर देती है तक़दीर जवाँ रातों-रात