बता क्या क्या तुझे ऐ शौक-ए-हैराँ याद आता है वो जान-ए-आरज़ू वो राहत-ए-जाँ याद आता है परेशाँ-ख़ातिरी हद से गुज़रती है तो वहशत को किसी का आलम-ए-ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ याद आता है गुज़रता है कभी जब चौदहवीं का चाँद बदली से महीन आँचल में उन का रू-ए-ताबाँ याद आता है अँधेरी रात में जुगनू चमकते हैं तो रह रह कर दुपट्टे के सितारों का चराग़ाँ याद आता है उफ़ुक़ पर फैलती हैं सुर्ख़ियाँ जब सुब्ह-ए-ताज़ा की कोई सीना पस-ए-चाक-ए-गरेबाँ याद आता है कली को फूल बनते देख कर अहद-ए-बहाराँ में कोई चेहरा बहुत नौख़ेज़-ओ-ख़ंदाँ याद आता है ग़ज़ल जब छेड़ देता है कोई अहद-ए-जवानी की किसी का जिस्म-ए-मौज़ून-ओ-ग़ज़ल-ख़्वाँ याद आता है वो तूफ़ाँ करवटें लेता था जो इक जिस्म-ए-रा'ना में वो तूफ़ाँ हम-किनारी का वो तूफ़ाँ याद आता है वो अरमाँ जो किसी के शोख़ होंटों पर मचलता था वो अरमाँ बोसा-ए-लब का वो अरमाँ याद आता है वुफ़ूर-ए-शौक़ से ख़ुद हाथ अपने चूम लेता हूँ वुफ़ूर-ए-शौक़ में जब उन का दामाँ याद आता है बहुत कुछ याद आता है 'रईस' उन की जुदाई में मगर जैसे कोई ख़्वाब-ए-परेशाँ याद आता है