जो समझना चाहिए था वो कहाँ समझा था मैं इस जहान-ए-रंग-ओ-बू को ख़ाक-दाँ समझा था मैं वक़्त की ठोकर ने ज़ाहिर कर दिए जौहर मिरे ज़िंदगी को अपनी संग-ए-राएगाँ समझा था मैं उस ने भर दी जान-ओ-दिल में इक नई ताबिंदगी जिस निगाह-ए-गर्म को बर्क़-ए-तपाँ समझा था मैं अपनी ही कोताह-दस्ती का निकल आया क़ुसूर कल जिसे बे-मेहरी-ए-पीर-ए-मुग़ाँ समझा था मैं