बताऊँ क्या शब-ए-फ़ुर्क़त मेरी कैसे सँवरती है कभी तो हूक उठती है कभी रो रो गुज़रती है उधर तो टीस उठती है इधर आँसू उबलते हैं उसी दम कहकशाँ तारों से अपनी माँग भरती है जुनून-ए-जज़्बा-ए-उल्फ़त की बेताबी मआ'ज़-अल्लाह जो कम होता है दर्द-ए-दिल तो फिर वहशत उभरती है मिरी वारफ़्तगी इस जज़्बा-ए-दिल की क़सम खा कर मोहब्बत नाम ले कर भी मोहब्बत ही से डरती है तिरा ये जज़्बा-ए-उल्फ़त सलामत ही रहे हर दम मोहब्बत जब कभी हद से गुज़रती है अखरती है अरे 'ग़म' लग़्ज़िश-ए-सोज़-ए-जिगर का कैफ़ क्या कहिए ज़बाँ मजबूर हो जाती है जब दिल में उतरती है