यद-ए-बैज़ा रुख़-ए-यूसुफ़ दिल-ए-मंसूर होते हैं जो तू देखे तो ज़र्रे भी चराग़-ए-तूर होते हैं गर इस नुक्ते को कुछ समझा तो सर्व-ए-पा-ब-गिल समझा कि बाग़-ए-दहर में आज़ाद भी मजबूर होते हैं शबाब-ए-मस्त की ढलती हुई तारीक रातों पर सहर हँसती है या मू-ए-सियह काफ़ूर होते हैं हो सद्द-ए-राह क्यों तेरे लिए संग-ए-वजूद अपना तू बेबाकाना पा-ए-नाज़ उठा हम दूर होते हैं ये मय-ख़ाना है ऐ शैख़-ए-हरम लग़ज़ीदा-पा हो जा कि इक ठोकर से पैदा इस जगह सौ तूर होते हैं सर-ए-जमशेद को ख़िश्त-ए-ख़ुम-ए-सहबा से टकरा दें गदा-ए-मय-कदा भी किस क़दर मग़रूर होते हैं हिक़ारत की नज़र से ख़िर्क़ा-पोशों को न देख ऐ दिल कि अक्सर इन में अपने अह्द के मंसूर होते हैं मुहय्या संग-ए-दर ऐ ना-मुराद-ए-ज़िंदगी कर ले कि जीने की तरह मरने के भी दस्तूर होते हैं न हो ख़ून-ए-जिगर जिन में न आवाज़-ए-शिकस्त-ए-दिल वो आँसू हूँ कि नाले 'फ़ैज़' ना-मंज़ूर होते हैं