बताए देती है बे-पूछे राज़ सब दिल के निगाह-ए-शौक़ किसी की निगाह से मिल के निकाले हौसले मक़्तल में अपने बिस्मिल के निसार तेग़ के क़ुर्बान ऐसे क़ातिल के मैं उस पे सदक़े जो जाए किसी की याद में जाँ किसी को चाहे मैं क़ुर्बान जाऊँ उस दिल के बड़ी अदाओं से ली जान अपने कुश्ते की हज़ार बार मैं क़ुर्बान अपने क़ातिल के ग़ुबार-ए-क़ैस नहीं है तो कौन है लैला कोई तो है कि जो फिरता है गिर्द महमिल के वो फूट बहने में मश्शाक़ हैं ये रोने में रहेंगे दब के न आँखों से आबले दिल के महार-ए-नाक़ा-ए-लैला तू खींच ले ऐ आह हटा दे दस्त-ए-तलब बढ़ के पर्दे महमिल के वो दिल में हैं मगर आँखों से दूर हैं 'बेदम' पड़ा हुआ हूँ मैं प्यासा क़रीब साहिल के