बताएँ क्या तुझ को चश्म-ए-पुर-नम हुआ है क्या ख़ूँ आरज़ू का बना गुल-ए-दाग़-ए-यास-ओ-हसरत जो दिल में क़तरा बचा लहू का दबे जो घुट घुट के दिल में अरमाँ वो बर्क़ बन कर फ़लक पे तड़पे जो वलवला जी में रह गया था वो बुलबुला अब है आब-ए-जू का अबस है तो चारा-गर-ए-परेशाँ न तुझ से कुछ बन पड़ेगा दरमाँ कि हो तो तार-ए-नफ़स से सामाँ जराहत-ए-दिल के हो रफ़ू का खुला लब-ए-गोर से ये उक़्दा कि ख़्वाब थी सब नुमूद-ए-हस्ती वुक़ूफ़ ना-महरूमी-ए-मंज़िल कमाल है मेरी जुस्तुजू का न तुझ को मस्त-ए-हवा-ए-गुलशन ख़िज़ाँ में ऐ अंदलीब देखा नहीं तू शैदाई बाग़-ओ-गुल का मगर फ़िदाई है रंग-ओ-बू का उसे न फिर कुछ दिया दिखाई नज़र पड़ा वो जमाल जिस को खुला हक़ीक़त का राज़ जिस पर न उस को यारा था गुफ़्तुगू का है नफ़-ए-ज़ात और नस्ख़-ए-हस्ती विसाल-ए-जानाँ की शर्त-ए-अव्वल भरा मनाज़िर से है जहाँ सब जो सिर्फ़ दर्शन का तू है भूका तिलिस्म-ए-दैर-ओ-हरम है तुझ पर हनूज़ दिल्ली है दूर नादाँ वहाँ तिरा ख़ाक दिल लगेगा वो है सरासर मकान हू का ख़बर किसे सुब्ह-ओ-शाम की है तअ'ईनात और क़ुयूद कैसे नमाज़ किस की वहाँ किसी को ख़याल तक भी नहीं वुज़ू का नहीं मुहीत-ए-रुसूम-ओ-मिल्लत है बे-निशाँ मंज़िल-ए-हक़ीक़त वहाँ न सिमरन की हतकड़ी है न तौक़-ए-ज़ुन्नार है गुलू का हैं ग़र्क़-ए-बहर-ए-मय-ए-मोहब्बत वहाँ है 'कैफ़ी' ये सब की हालत है दख़्ल साक़ी की बज़्म में क्या सुराही-ओ-साग़र-ओ-सुबू का