बताएँ क्या तुम्हें ख़ून-ए-तमन्ना रोज़ होता है मियाँ छलनी ग़रीबों का कलेजा रोज़ होता है कभी कलियों की दिल-सोज़ी कभी है क़त्ल फूलों का तुम्हीं बतलाओ इस गुलशन में ये क्या रोज़ होता है यहाँ मुफ़्लिस उजाले की किरन को भी तरसते हैं मगर कहने को बस्ती में उजाला रोज़ होता है ये कह दो क़ाइदों से अब यहाँ ज़हमत न फ़रमाएँ हमारे शहर में बेदार फ़ित्ना रोज़ होता है यहाँ नीलाम हो जाती है इज़्ज़त चंद सिक्कों में ये दुनिया है यहाँ ऐसा तमाशा रोज़ होता है अगर 'दरवेश' तुम रुस्वा हुए हो तो तअज्जुब क्या शरीफ़ों की हवेली में तो ऐसा रोज़ होता है