रोज़ इक फ़ित्ना उठाते क्यों हो ज़ुल्म लोगों पे यूँ ढाते क्यों हो नस्ल-ए-आदम से तअल्लुक़ रख कर ख़ून इंसाँ का बहाते क्यों हो हैं जो मासूम फ़रिश्ते उन को पाठ नफ़रत का पढ़ाते क्यों हो जब उजाले के मुहाफ़िज़ ठहरे फिर चराग़ों को बुझाते क्यों हो पड़ गया क़हत है क्या पानी का ख़ून से प्यास बुझाते क्यों हो रंजिशें कम हैं दिलों में 'नादिम' दूरियाँ और बढ़ाते क्यों हो