बातिन से सदफ़ के दुर-ए-नायाब खुलेंगे लेकिन ये मनाज़िर भी तह-ए-आब खुलेंगे दीवार नहीं पर्दा-ए-फ़न बंद-ए-क़बा है इक जुम्बिश-ए-अंगुश्त कि महताब खुलेंगे कुछ नोक-पलक और तहय्युर की सँवर जाए हर जुम्बिश-ए-मिज़्गाँ में नए बाब खुलेंगे आईना-दर-आईना खुलेगा चमन-ए-अक्स ताबीर के दर ख़्वाब पस-ए-ख़्वाब खुलेंगे हो जाएँगे जब ग़र्क़ सदाओं के सफ़ीने सुनते हैं ख़मोशी के ये गिर्दाब खुलेंगे क्या उन से समाअत भी गुज़र पाएगी ऐ 'साज़' वो दर जो तह-ए-जुम्बिश-ए-मिज़राब खुलेंगे