बयाँ ऐ हम-नशीं ग़म की हिकायत और हो जाती ज़रा हम खस्ता-हालों की तबीअत और हो जाती नसीहत हज़रत-ए-वाइज़ की सुनते भी तो क्या होता यही होता कि हम को उन से वहशत और हो जाती बहुत अच्छा हुआ आँसू न निकले मेरी आँखों से बपा महफ़िल में इक ताज़ा क़यामत और हो जाती तड़प कर दिल ने मंज़िल पर मुझे चौंका दिया वर्ना ख़ुदा जाने कि तय कितनी मसाफ़त और हो जाती तुम्हारे नाम से है बेकसों का नाम वाबस्ता बुला लेते अगर दर पर तो निस्बत और हो जाती बहुत सस्ते रहे नीची नज़र से दिल लिया तुम ने अगर नज़रें भी मिल जातीं तो क़ीमत और हो जाती शरफ़ बख़्शा है तुम ने आज मुझ को हम-कलामी का कहूँ कुछ दिल की बात इतनी इजाज़त और हो जाती ज़हे क़िस्मत नवाज़ा है जवाब-ए-ख़त से 'वासिफ़' को दिखाते इक झलक इतनी इनायत और हो जाती