बयाँ ग़ैरों से अपना ग़म करें क्या नमक को ज़ख़्म का मरहम करें क्या नए मौसम के ख़ाके हैं नज़र में गुज़शता फ़स्ल का मातम करें क्या उतरता ही नहीं है उस का जादू बताओ ख़ुद पे पढ़ कर दम करें क्या उसे हम किस तरह दिल से निकालें ये दिल सुनता नहीं तो हम करें क्या हम उस की बे-रुख़ी का ज़िक्र कर के उसे कुछ और भी बरहम करें क्या हमें जबरन ही जीना पड़ रहा है बता ऐ गर्दिश-ए-पैहम करें क्या ग़मों की धूप में जब जल चुके हैं ख़ुशी की छाँव का 'आलम' करें क्या