ये दाग़-ए-हिज्र नहीं मिट सका जबीं का लगा ज़मीं कहीं की है पैवंद है कहीं का लगा मिला है दश्त हमें जुस्तुजू में मंज़िल की गुमाँ था पाँव में और आबला यक़ीं का लगा हमारा नाम-ओ-नसब हम से पूछने वाले लहू न इस तरह दामन पे आस्तीं का लगा उठा के दोष पे खे़मे निकल पड़े हम लोग ज़रा न ख़ौफ़ हमें अजनबी ज़मीं का लगा